तोरई की उन्नतशील खेती कैसे करे - How to cultivate high quality of tomai

तोरई की उन्नतशील खेती कैसे करे How to cultivate high quality of tomai



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                                                तोरई
                                           (Sponge Gound)
                      वैज्ञानिक नाम - Luffa Cylindrica Roem
                                   
                                       कुल -Cucurbitaceae

तोरई की खेती 

भूमि 

तोरई की फसल के लिए हल्की दोमट अथवा दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है लेकिन तोरई  की फसल भी उन सभी मिट्टी में उत्पन्न की जा सकती है जहां लौकी उगाना संभव है। 

भूमि की तैयारी  

लौकी और करेले की फसल के समान तोरई की फसल के लिए भी भूमि एक बार किसी मिट्टी पलट हल से जोड़कर तीन से चार बार देशी हल से जूते नहीं चाहिए।  और पटेला चलाकर भूमि को समतल कर देना चाहिए उन की तैयारी के समय उसमें पर्याप्त मात्रा में कम से कम 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। 

खाद तथा उर्वरक 

खेत की तैयारी करते समय लगभग 250 से 300 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद बुवाई के एक माह पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए खाद की आवश्यकता निम्न प्रकार होती है गोबर की खाद 250 से 300 किलो मीटर तथा 30 से 40 किग्रा नाइट्रोजन 25 से 30 किग्रा फास्फोरस 30 से 40 के ग्रह प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की एक बटे तीन फास्फोरस की मात्रा में बीज बुवाई के पहले मिट्टी में मिल आते हैं। 

 नाइट्रोजन का एक बटे तीन भाग पौधों में चार से पांच पतियों ने पत्थर एक बटे तीन भाग फूल आने पर पौधों के चारों ओर टॉप ड्रेसिंग द्वारा देते हैं। 

बुवाई का समय 

तोरई की फसल मैदानी भागों में वर्ष में दो बार ली जाती है WhatsApp ग्रीष्म ऋतु में वर्षा वाली फसल के लिए बीजों की बुवाई जून-जुलाई में करते हैं तथा गर्मी वाली फसल नवंबर से फरवरी तक बोई जाती है अगेती फसल जिसमें 20 दिसंबर में ही बोए जाते हैं जमाव ना होने पर ठंड से बचाना चाहिए   पहाड़ों पर तोरई  20 अप्रैल से जून तक बोए जाते हैं। 

 बीज की मात्रा 

4 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 

खरीब की फसल में कम जायद में अधिक बार प्रयोग करते हैं। 

 बुवाई का ढंग 


तुरई की  बुवाई लौकी की भांति की जाती है तुरई की बुआई गड्ढों में नालियों में क्यारियों में की जाती है। 

फसल अंतरण                                          ग्रीष्म फसल                                                 वर्षा ऋतू की फसल 

                                                                 2 × 0. 5                                                                 3  × 0. 75 

सिचाई व निकाई -गुड़ाई 

पानी की आवश्यकता मौसम और भूमि की किस्म पर निर्भर करती है। बरसात में प्राया सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती वर्षा पर्याप्त ना होने पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की फसल में प्रारंभिक दिनों में लगभग 10 दिनों के अंतर पर तथा  बाद में तापक्रम बढ़ने पर 5 से 6 दिनों के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता हो जाती है खेत को खरपतवार रहित रखने के लिए समय-समय पर निराई करते रहना चाहिए।

सहारा देना

 शाखा धार सूखे पेड़ों की डालियां बांस की पत्तियों का बहाना बनाकर बैलों को जल चढ़ाने से बरसात की फसल में काफी लाभ होता है।  इससे फलों को गीली मिट्टी के संपर्क में आकर चढ़ने से बचा लिया जाता है और पढ़ाई में भी सुविधा होती है। ग्रीष्म ऋतु की फसल पर आया जमीन पर फैलने देते हैं तोरई में नर और मादा फूल अलग-अलग पौधों पर आते हैं यह दिन और फूल के पुंकेसर वालों की भर्ती गांव के ऊपर रगड़ जाए तो परागण हो सकता है।

बीमारियाँ तथा रोकथाम 

1. चूर्णी फफूदी 

पहचान -इस बीमारी का आक्रमण पत्तियों एवं तनो  पर होता है पहले पुरानी पत्तियों पर सफेद रंग के गोल धब्बे उत्पन्न होते हैं जो धीरे-धीरे आकार और संख्या में बढ़कर पूरी पत्तियों पर छा जाते हैं पत्तियों  की सतह पर सफेद चूर्ण सा जमा  हुआ दिखाई देता है रोग का अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों का हरा रंग समाप्त होने लगता है और यह पीली पड़ कर अंत में भूरी  हो जाती हैं और इन पर झुर्रियों से पड़ जाती है

रोकथाम -लक्षण प्रकट होते ही ग्रसित भाग को निकाल दें। 0. 06 % केराथेन  के घोल का 3 सप्ताह के अंतर पर तीन छिड़काव करें। 

2.रोमिल फफूँदी 

पहचान -पीले से लेकर लाल भूरे रंग के धब्बे पत्तियों की ऊपरी सतह पर तथा बैंगनी रंग के धब्बे पत्ती की निचली सतह पर प्रकट होना इसका मुख्य लक्षण है। रोग ग्रसित पौधों पर लगे फल को ठीक से पकने नहीं और फल में उनका स्वभाव का रंग भी उत्पन्न नहीं हो पाता है।

रोकथाम -इंडोफिल एम 45 के 0. 25 प्रतिशत 250 ग्राम 100 लीटर पानी में घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतर पर 3 बार करें।

3. मोजेक

यह रोग माहू द्वारा फैलता है अतः इन्हें मारने के लिए साईपरर्मेथ्रिन 0.15 प्रतिशत (150 मिली 100 लीटर पानी) दवा का प्रयोग करते हैं रोगी पौधों को निकाल कर जला देना चाहिए।

किट तथा उनकी रोकथाम 

1 . लौकी का लाल भृंग (रेड पंपकिन बीटल )

 यह लाल रंग का उड़ने वाला कीट है पौधों के उठते ही इनकी पत्तियों को खाना आरंभ कर देते हैं।

रोकथाम -पौधों पर मैलाथियान 5% धूल 30 से 35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का बुरकाव   या 50% घुलनशील धूल के 0.2 प्रतिशतघोल 200 ग्राम दवा 100  लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए साईपरर्मेथ्रिन 0.15 प्रतिशत के घोल का छिड़काव बहुत ही कारगर सिद्ध होता है।


2 . तने काटने वाली सूंडी (कटवर्म )

पहचान - यह सुंडी रात में निकलकर छोटे पौधों को भूमि की सतह से काट देते हैं दिन में या घास फूस में छिपी रहती हैं।  

रोकथाम -इनकी रोकथाम के लिए लिन्डोन  1.3 प्रतिशत या  हेप्टाक्लोर (20 से 25 किलोग्राम )प्रति हेक्टेयर को बीज से बुवाई से पहले खेत में मिला देते हैं

3. माहू 

रोकथाम -इनकी रोकथाम काफी हद तक उपरोक्त कीटनाशक दवाओं से ही हो जाएगी किंतु आक्रमण अधिक है।  तो साईपरर्मेथ्रिन 0.15% 150 मिलीलीटर 100 लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।  इस दवा के छिड़कने के बाद 7 दिन तक फल नहीं तोड़ना चाहिए। 

4. फल की मक्खी (फ्रूट फ्लाई )

पहचान -वयस्क मक्खी कुछ पिले लाल रंग की होती है जो फलो में अण्डे देती है। कभी -कभी 50 %तक फल इससे ग्रसित हो जाते है। 

रोकथाम -रोग ग्रसित फलो को इकट्ठा करके जमीन में गहरा गाड़ देना चाहिए। 
 बेल पर फूल आते ही सेविंन  0. 2% 200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में अथवा साईपर्मेथ्रिन में 0 . 15% से 150 मिलीलीटर दवा 100 लीटर पानी में घोल का छिड़काव भी किया जा सकता है। 

उपज 

100-125  कुंतल प्रति हेक्टेयर 



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