करेले की उन्नतशील खेती कैसे करें

                            करेला (Bitter Gourd)
                   वानस्पतिक नाम -(Mamordica charantia L.)
                                कुल -(Cucurbitaceae)

करेले की  खेती कैसे करें-






करेले की उन्नतशील खेती कैसे करें -How to cultivate bitter gourd

संछिप्त परिचय -

करेले की खेती संपूर्ण भारत में की जाती है इसका फल खुरदरी सतह वाला और कड़वा होता है लेकिन उच्च पोषक तत्वों और औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण इस सब्जी का जन जीवन में बड़ा ही महत्व है करेला ग्रीष्म ऋतु की मुख्य सब्जी है तथा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत गुणकारी है करेले की संपूर्ण खेती भारत में की जाती है इसके फल को सब्जी के रूप में पकाकर, फ्राई करके तथा कलौजी के रूप में प्रयोग करते हैं करेला खाने में कुछ कड़वा होता है लेकिन इसकी सब्जी बहुत ही लाभकारी होती है इसकी इस की सब्जी पेट के कीड़ों को मारती है

 मधुमेह के रोगियों के लिए करेले की सब्जी विशेष रूप से लाभकारी होती है रक्त विकार तथा पीलिया आदि रोगों में इसकी सब्जी का सेवन लाभकारी होता है करेले के रस को सिर की खाल में छाले हो जाने पर प्रयोग करते है तथा  जलने के घाव  और  फोड़ो पर भी लगाया जाता है

 करेले में विटामिन A,B,C तथा खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं

करेला की उत्पत्ति एवं इतिहास 

करेले का जन्म स्थान सम्भवता पुरानी  दुनिया  सूखे  क्षेत्र विशेष  अफ्रीका तथा चीन माने जाते हैं यहां से इनका वितरण संसार के अन्य भागों में हुआ भारत में इसकी जंगली जातियां आज भी उगती देखी गई हैं

जलवाऊ 

यह गर्म तथा नम जलवायु की फसल है फिर भी इस में विभिन्न प्रकार की जलवायु को सहन करने की पर्याप्त क्षमता है इसको अपेक्षाकृत कम तापमान वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है पाले  से इसकी फसल को भारी हानि होती है इसके बीजों का बीज चोल काफी कठोर होता है इसलिए अंकुरण पर्याप्त नमी का शोषण ना होने के कारण धीरे-धीरे  और और अधिक समय में होता है

भूमि तथा उसकी तैयारी

 करेले की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती हैं परंतु बलुई दोमट भूमि जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो वही भूमि सर्वोत्तम रहती है अच्छी उपज के लिए भूमि में जीवाश्म पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए करेले की सफल खेती के लिए भूमि का पीएच मान 6. 0 से 7. 0 के बीच होना चाहिए खेत को तैयार करने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद तीन से चार जुताई देशी हल या हैंरों से करना चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पटेला चलाकर खेत को समतल बना लिया जाता है

बीज और बुवाई 

1. बोने का समय तथा बीज की मात्रा

(अ)मैदानी  क्षेत्रो में-
      ग्रीष्म ऋतू की फसल -नवम्बर -मार्च 
      वर्षा ऋतू की फसल -  जून जुलाई  

(ब)पहाड़ी क्षेत्रो में 
     मार्च से जून तक 

सामन्य रूप से 80 -85 % जमाव क्षमता वाला 6 से 7 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर की बुवाई  लिए पर्याप्त होता है।  

2. बीज बोने की विधि तथा दुरी  

करेले को क्यारियों ,नालियों या गड्ढो में बोया जाता है बोने की दुरी निम्न प्रकार रखनी चाहिए -
ग्रीष्म फसल                                                                                वर्षा ऋतू फसल 
200 *50                                                                                      250 *60 


करेले के बीज को सीधे खेत में ही बोया जाता है 

ग्रीष्म ऋतु वाली अगेती फसल बोने के लिए बीज को पहले भिगोकर तथा बनावटी गर्मी देकर बीज को अंकुरित कर लेते है तैयार खेत में 4 से 5 मीटर लम्बी 2.0 मीटर चौड़ी क्यारिया बनाई जाती है प्रत्येक दो क्यारियां बनाई जाती हैं

 प्रत्येक दो क्यारियों के बीच 60  सेंटीमीटर चौड़ी नाली छोड़ देते हैं बीज इन  क्यारियों के दोनों किनारों पर बने थालों में बोए जाते हैं एक थाले से दूसरे थाले  की दूरी 50 सेंटीमीटर रखते हैं प्रत्येक थाले  में 3  से 4  बीज बोते हैं बीज 2 से 3 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए


खाद तथा उर्वरक 

करेले की अधिकतम पैदावार लेने के लिए सही समय पर उचित मात्रा में खाद और उर्वरक दोनों का ही प्रयोग आवश्यक है खेत की तैयारी के समय गोबर की सड़ी हुई खाद ढाई सौ से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देनी चाहिए इसके अलावा 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस तथा 20 से 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देने के लिए उर्वरकों का प्रयोग करते हैं

सिचाई तथा जल निकास 

करेले की फसल में सिंचाई की आवश्यकता मौसम तथा भूमि की किस्म पर निर्भर करता है बरसात में बोई गई फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती परंतु जब लंबे समय तक वर्षा ना हो तो ऐसी दशा में सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है 

वर्षा ऋतु वाली फसल में जल निकास का अच्छा प्रबंध होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा हो जाने पर पौधे पीले पड़ जाते हैं और बाद में मर जाते हैं ग्रीष्म ऋतु की फसल में प्रारंभिक दिनों में लगभग 10 दिन के अंतर पर और बाद में तापमान बढ़ने पर 6 से 7 दिन के अंतर पर सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है साधारण तरीके से ग्रीष्म ऋतु की फसल में 8 से 10 सिचाइयों की आवश्यकता पड़ती है

खरपतवार नियंत्रण 

आवश्यकता अनुसार समय-समय पर निराई गुड़ाई करके खेत को खरपतवार से साफ रखना चाहिए जब बेले पूर्ण रुप से फैल जाए  निराई-गुड़ाई करना बंद कर देना चाहिए साधारणता वर्षा ऋतु की फसल में तीन से चार  ग्रीष्म ऋतु की फसल में लगभग 2 निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है

सहारा देना 

करेले की फसल को सहारा देना अति आवश्यक है ताकि फलों को गीली मिट्टी के संपर्क में आकर सड़ने से बचाया जा सके इसके लिए शाखा दार पेड़ों की सूखी डाली आधारित याद की लकड़ियां या बांस की पत्तियों का प्रयोग करते हैं वर्षा ऋतु वाली फसल को सहारा देना अधिक लाभप्रद होता है  सहारा देने से फलों की तुड़ाई में सुविधा होती है तथा फलों का आकार और रंग भी अच्छा लगता है


 रोग नियंत्रण 

पाउडर की तरह फफूंदी

इस रोग के फलस्वरूप पत्तियों पर सफेद और पीले रंग का चूर्ण जैसा पदार्थ इकट्ठा हो जाता है और बाद में बदामी रंग के में बदलकर पत्तियां समाप्त हो जाती हैं इससे बचाव के लिए केरातिन दवा 7 ग्राम दवा 2 लीटर पानी में 15 दिन के अंतर पर लगभग 3 छिड़काव करने पड़ते हैं

कोमल फफूंदी

यह फफूदी केवल पत्तियों पर आक्रमण करती हैं जिन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होती है वहां इस रोग का प्रकोप अधिक होता है पतियों की ऊपरी सतह पर पीले से लेकर भूरे रंग के धब्बे पड़ते हैं तथा निचली सतह पर रुई के समान मुलायम वृद्धि होती है रोगी पौधों पर फल कम लगते हैं इसकी रोकथाम के लिए डायथेन एम-45 दवा के 0.2 प्रतिशत घोल  200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में 10 से 15 दिन के अंतर पर तीन छिड़काव करते हैं

 किट नियंत्रण 

रेड पम्पकिन बिटिल 

यह कीट लाल रंग का उड़ने वाला कीट होता है पौधों के उगते ही उन्हें खाना आरंभ कर देते हैं इनकी रोकथाम के लिए सेविन  10% धूल का 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं अथवा 1.5 मिलीलीटर साईपर्मेथ्रिन प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करने पर बहुत ही प्रभाव कारी होता है

ऐपीलेकना बिटिल  

इस किट  पर काले रंग के गोल धब्बे होते हैं यह किट  भी अंकुरित हो रहे छोटे पौधों को खाते हैं इस कीट का नियंत्रण  10% धूल का 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं अथवा 1.5 मिलीलीटर साईपर्मेथ्रिन प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करने पर बहुत ही प्रभाव कारी होता है

कीड़े काट cut worm

इस किट  की सुंडी रात में निकल कर छोटे पौधों को भूमि की सतह से काट देती हैं इस कीट की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन  5% धूल हेप्टाक्लोर  धूल  को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल बोने से पहले मिट्टी में मिला देना चाहिए

 माहु (Aphids)

ये किट की पत्तियों का रस चूस लेते हैं इनकी रोकथाम के लिए फल के आने से पहले की अवस्था में साईपर्मेथ्रिन 0.15% (150 मिलीलीटर  दवा 200 लीटर पानी में )छिड़काव करना चाहिए

फल की मक्खी (FRUIT FLY)

यह किट फलों की ऊपरी सतह को ठीक नीचे अंडे देती है जिनसे बाद में छोटे-छोटे किट  निकलते हैं जिन्हें मैंगट कहते हैं यह मैंगेट फूलों की गुदों को खाते हैं और इस प्रकार उन्हें सड़ा  देते हैं इनकी रोकथाम के लिए जैसे ही फूल आना आरंभ हो जाए (सेविन  दवा 0.2 प्रतिशत घोल  200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में )15 दिन के अंतर पर तीन छिड़काव करना चाहिए साथ ही साथ टाट  के टुकड़ों पर निम्नलिखित प्रकार से बनाए गए मिश्रण  लगाकर खेत में कई स्थानों पर रखना चाहिए ताकि किट इसे  खाकर मर जाएं

1 . ईस्ट प्रोटीन 500 ग्राम 
2 . मैलाथियान (25 %डब्लू पी ० ) 900 ग्राम 
3 . पानी 13. 5  लीटर 


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