बेर की खेती कैसे करे -How to cultivate plum

बेर की खेती कैसे करे How to cultivate plum 


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                                                   बेर BER
                                     वैज्ञानिक नाम Zizyphus jujuba
                                              कुल -Rhamnaceae 

बेर की खेती 

उपयोगिता  

बेर गरीब लोगों का फल है यह सर्व सुलभ है और फसल के दिनों में बहुत सस्ता मिलता है अच्छे पके हुए पैर बहुत स्वादिष्ट लगते हैं देर में पोषक तत्व विशेषकर विटामिन A. B. C  और लोहा प्रचुर मात्रा में पाया जाता है इस में प्रोटीन कैल्शियम फास्फोरस प्रोटीन और विटामिन सी काफी मात्रा में पाया जाता है आयुर्वेद की दृष्टि से मीठा बेर ठंडा रूप और रक्त शुद्ध करने वाला होता है तथा आंखों की ज्योति भी बढ़ाता है यह भूख भी लगाता है सूखा पेड़ बलवर्धक सुपाच्य और पाचक है इसका सेवन थकावट ,प्यास  और भूख को दूर करता है। 

बेर में कौन-कौन से तत्व पाए जाते हैं 

जल 85.9 प्रतिशत, प्रोटीन 0.8 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 12.8 प्रतिशत, 0.1 प्रतिशत कैल्शियम 0.03 प्रतिशत। 

बेर की उत्त्पत्ति

बेर का जन्म स्थान भारत ही है और इसे हमारे देश में अत्यंत प्राचीन काल से उगाया जा रहा है शायद ऐसा ही कोई स्थान हो जहां बेर के पेड़ उपलब्ध ना हो कुछ विद्वान सीरिया को बेल की जन्मभूमि मानते हैं। 

भूमि और जलवायु 

बेर भूमि और जलवायु  दोनों ही दृष्टि से बहुत अच्छा फल है और मौसम की विभिन्न अवस्थाओं में उड़ सकने की अद्भुत क्षमता रखता है यह अधिक गर्मी लो और पाली को भी सहन कर लेता है ऐसी कोई भूल नहीं यहां पर कौन हो गया जा सके।  

बलुई से लेकर मृतका  भूमि तक में बेर पनप सकने की क्षमता रखता है और सुखा को सहन करने में  भी समानता नहीं रखता कटीला होने के कारण या अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है और जंगली पशु भी से हानि नहीं पहुंचा पाते हैं ऊसर भूमि  में प्रायः  कोई फल शाक भाजी अथवा अन्य फसल ऊगता है   लेकिन बैर भी उसमेंसफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। 

 बेर के उत्पादन क्षेत्र कौन-कौन से हैं

मध्य प्रदेश के जंगलों में बेर के वृक्ष और पौधे अधिकतम पाए जाते हैं बड़ौदा अहमदाबाद नागपुर लखनऊ और बनारस इत्यादि स्थानों में बैर की बहुतायत पाई जाती है बड़ौदा में 125 हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 250 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में बेर के वृक्ष बाग लगे हुए हैं। 

 पूर्वी आज प्रदेश में बेल के फल की खेती बहुत बड़े क्षेत्रफल में की जाती है बिहार के शाहाबाद जिले और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुख्य वाराणसी जिले में बहुत उत्तम किस्म का बेर उगाया जाता है मथुराअलीगढ़ जिले में सहपऊ और सासनी (हाथरस) क्षेत्र के बेर बहुत प्रसिद्ध हैं। 

खाद और उर्वरक

बेर के प्रत्येक पौधों में प्रतिवर्ष 100 किलोग्राम नाइट्रोजन 50 ग्राम फास्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश खाद देना चाहिए बेर के पौधे में पर्याप्त खाद दिए जाने पर उनकी उपज और फलों का आकार तथा गुणों में सुधार होता है देर में पूर्वक जुलाई महीने में साफ मौसम में देना चाहिए। 

 तने से लगभग आधा मीटर की दूरी छोड़कर बेर के पौधे पेड़ के चारों और खाद की टक्कर और फिर भूमि को और अथवा कुदाल से कूदकर उसे मिट्टी में मिला देना चाहिए पौधों के अच्छे विकास के लिए 20 से 25 किलोग्राम गोबर की खाद प्रतिवर्ष प्रति पेड़ वर्षा के मौसम में देनी चाहिए। 

 प्रवर्धन 

बेर के पौधों को दो विधियों से तैयार किया जाता है-

 1. बीज बोकर  2.मुकुलन द्वारा   3. चोटी कलम लगाना 

1. बीज   बोकर -बेर के प्रवर्धन का यही ढंग सबसे अधिक प्रचलित हैं बीज गड्ढों में ही बोलना चाहिए क्योंकि बेल का पौधा स्थांतरण सहन नहीं कर सकता 20 फरवरी मार्च में बोए जाने पर 20 से 30 दिन में अंकुरित हो जाता है पेड़ का बीज वर्षा ऋतु में भी बोया जा सकता है। 

2.मुकुलन द्वारा -अच्छी फल  प्राप्त करने के लिए   मुकुलन द्वारा ही बेर  को लगाना चाहिए मुकुलन द्वारा पाबंदी या कॉल मी बैक तैयार किए जाते हैं 1 वर्ष की आयु में के तने पर भूमि से 30 से 40 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर वर्षा ऋतु में कल्याण किया जाता है। 

3.चोटी कलम लगाना- देश के विभिन्न भागों में बंजर पड़ी भूमियों या खेतों की मेड़ों पर आसपास जंगली अवस्था में उगते हुए बेर के पेड़ काफी दिखाई पड़ते हैं। 

चोटी कलम लगाकर अच्छी स्थिति में लाया जा सकता है और उनसे उन्नत किस्म की फल प्राप्त किए जा सकते हैं 20 कलम बांधने के लिए जंगली वृक्ष को भूमि की सतह से 1 से 2 मीटर की ऊंचाई पर दिसंबर-जनवरी में काट दिया जाता है फिर कटी हुई चोटी के थोड़ा नीचे से निकलने वाली शाखा में से सबसे स्वस्थ शाखा को छोड़कर शेष काट देते हैं इसे चुनी हुई शाखा की मोटाई जब पेंसिल की मोटाई के बराबर हो जाती है तो उस पर डाले चश्मा कल ही लगा दी जाती है। 

बेर के पौधे कैसे लगाए

मुकुलन विधि द्वारा तैयार पौधों को गड्ढा में लगभग 7 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है अधिकांश बेर के पौधों को बाघ के किनारों पर लगाया जाता है और इस प्रकार यह पेड़ कुछ सीमा तक बाद में लगाए गए अन्य पेड़ों की लू आंधी और पहले से भी रक्षा करते हैं बेर के पेड़ तैयार करने के लिए झरबेरी जैसी किस्मों के बीज से उगाए गए पौधों से चश्मा बंदी की जाती है बेर के स्कंद को भूमि से एक सही एक बटे दो(1/2 ) मीटर की ऊंचाई पर काटकर नई शाखाओं की कलम में लगाई जाती हैं। 

बेर की सिंचाई

बेर के पेड़ो में जाड़े के दिनों में प्रतिवर्ष एक अथवा दो सिचाईयाँ केर देने पर पेड़ खूब फलते -फूलते है। 

उपज 

बेर के पेड़ों से प्रतिवर्ष लगभग 100 से 200 किलोग्राम भार प्राप्त होते हैं। 

किट  नियंत्रण 

फल मक्खी -बेर को सबसे अधिक हानि फल मक्खी से होती है इस मक्खियों की लौंडिया फलों को खाती हैं जिसके कारण फल खाने में तेरे मेरे हो जाते हैं फल के अंदर बीज के चारों तरफ खाली स्थान बन जाता है और फल चढ़कर बेकार हो जाता है। 

रोकथाम अक्टूबर नवंबर के महीने में जब छोटे होते हैं उस समय दो बार 0.2 प्रतिशत सुमिसीडीन  के घोल का छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर तीसरा छिड़काव 0.0 5% मैलाथियान के घोल का फरवरी के महीने में छिड़काव करना चाहिए। 


बेर बिटिल -बेर डिटेल तथा अन्य पत्तियां खाने वाले कीटों के आक्रमण होने पर जून जुलाई के महीने में 0.2% से भिन्न के घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

रोकथाम -छोटे पौधों पर बी० एच० सी 10% धूल अथवा फ़ोलीडाल 2 प्रतिशत धूल का भुरकाव करना चाहिए। 

रोग नियंत्रण

पाउडर की तरह फफूंदी(Powdery Mildew )

बेर में अधिक रोग नहीं लगते इनमे  मुख्य रूप  पाउडर की तरह फफूंदी रोग लगता है यह रोग जाड़े में दिखाई देते है। 

रोकथाम -जिससे पत्तियां तथा फल बहुत बुरी तरह प्रभावित होते हैं इस पर एक प्रकार से सफेद पदार्थ की परत चढ़ जाती है प्रभावित फलों की पत्तियों की वृद्धि रुक जाती है इसकी रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक जैसे सल्फैक्स  अथवा इलोसाल की 3 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें पहले फिर का फूल आने से पहले और 15 दिन के अंतर पर करते रहे। 



लीची की उन्नतशील खेती कैसे करें cultivate litchi's

लीची की उन्नतशील खेती कैसे करें How to cultivate litchi's advanced plant


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लीची की खेती 

उपयोगिता

लीची एक अत्यंत स्वादिष्ट फल है जिसे बच्चे विशेष रूप से पसंद करते हैं या फल हल्के लाल रंग का होता है और छिलका उतार देने पर सफेद गुदा निकलता है जिसे खाने के लिए प्रयोग किया जाता है गुर्दे के अंदर बीज का निकलता है। 

लीची का फल प्राकृत में ठंडा वाटर होता है इसमें आवश्यकताएं 15.3 प्रतिशत शर्करा शुगर 11015 प्रतिशत प्रोटीन और 4.5% खनिज लवण होते हैं इसमें विटामिन सी भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं लीची का फल सेवन करने से हृदय तथा मस्तिष्क को बल मिलता है। 

यह प्यास को भी शांत करता है अतः एक ही साथ इसे अधिक नहीं खाना चाहिए लीची के फल ताजे खा जाते हैं, फल मई से जुलाई तक मिलते हैं। लेकिन स्थित भंडारों में रखे फल महीनों में खाने के लिए उपलब्ध हो सकते हैं। 

लीची का  उत्पत्ति स्थान

लीची गर्मियों का फल है लीची उगाने वाले देशों में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है चीन देश को इसकी जन्मभूमि मानी जाती है। 

 हमारे देश में लीची के दो प्रमुख क्षेत्र हैं -

1. उत्तर सूखा फल प्रदेश -लीची का उत्पादन केवल पंजाब में गुरदासपुर जिले तथा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और उत्तराखंड के देहरादून जिले तक ही सीमित है देहरादून और सहारनपुर में लीची के सुंदर बगीचे हैं जो ग्रीष्म ऋतु में पेडों पर लीची लदे होते हैं। 

2. पूर्वी आर्द्र फल प्रदेश - इस क्षेत्र मुक्ता बिहार के चंपारण मुजफ्फरनगर दरभंगा और भागलपुर जिले में तथा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, आजमगढ़, फैजाबाद, इलाहाबाद और वाराणसी जिले में लिखी अधिक होती है। 

लीची की खेती के लिए जलवायु कैसी होनी चाहिए 

लीची के लिए मामूली नम और गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है पहले और दूसरे लीची को हानि पहुंचती है लीची को ऐसे क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है जहां गर्मियों में अधिक गर्मी ना पढ़ती हो और जाड़ों में अधिक सर्दी ना हो इसे 1000 मीटर की ऊंचाई तक आसानी से उगाया जा सकता है उत्तरी शुष्क प्रदेश के लीची उगाने वाले तराई क्षेत्रों की ऊंचाई 450 मीटर से लेकर 625 मीटर तक है। 

जहां मैदानों की अपेक्षा स्पष्ट रूप से शीत ऋतु अधिक भीषण होती है और बोली थी कि फलाने के समय में इस सारे क्षेत्रफल में तापमान कुछ अधिक रहता है ग्रीष्म ऋतु में वर्षा के आगमन से पहले तक यहां तूफानी आंधियां चलती हैं वर्षा वार्षिक 90 सेंटीमीटर से लेकर 125  सेंटीमीटर तक होती हैं सहारनपुर और देहरादून जिलों के मौसम को पर्वतों की निचली भूल पर गर्म समिति शीतोष्ण जलवायु का कुछ लाभ प्राप्त होता है। 


अतः यहां दोनों प्रदेशों में उगने वाले फल सरलतापूर्वक उगाए जा सकते हैं। आजकल प्रदेश के बिहार और यूपी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में 75 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होती है। और जनवरी के महीने में ताप  21 डिग्री सेल्सियस रहता है मौसम फलों के मौसम में तापमान भी ऊंचा रहता है अतः स्पष्ट है कि लीची का फल उत्पादन के लिए गर्म जलवायु आवश्यक होता है फलों के पत्ते समय सूची हवा चलने से पलट जाते हैं देश में सबसे अधिक क्षेत्रफल बिहार में है। 

लीची की खेती के लिए भूमि की तैयारी कैसे करे 


लीची के लिए पर्याप्त गहराई की ऐसी भूमि की आवश्यकता होती है जिसमें पानी का निकास का समुचित प्रबंध हो लीची  के लिए मृतिका दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। दोमट भूमि में भी लीची की अच्छी उपज होती है। 

दोमट भूमि में कैल्शियम की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध होने पर लीची की उत्तम उपज होती है। 6 और 7 p. h बजे के बीच अम्लीय भूमि लीची की उपज उगाने की क्षमता रखती है अति उत्तम लीची की मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा काफी होनी चाहिए।


 खाद और उर्वरक 

पेड़ की उम्र (वर्ष में )        गोबर की खाद                 नाइट्रोजन          फास्फोरस             पोटाश 
                              (किग्रा प्रति पेड़ )            (ग्रा० प्रति पेड़)    (ग्रा० प्रति पेड़)        (ग्रा० प्रति पेड़)

     1                                 15                                  60                 30                           30

     2                                 20                                  120               60                           60

     3                                 25                                  180               90                           90

     4                                30                                   240              120                         120

     5                                35                                   300              150                         150

     6                                40                                   360              180                         180

     7                                45                                   420              210                         210

     8                                50                                   480              240                         240

     9                                55                                   540              270                         270

    10                               60                                   600              300                         300

लीची का प्रवर्धन

लीची के पौधो को निम्नलिखित विधियों से तैयार किये जा सकते है
1 . बीज बोकर         
2. दाब कलम लगाकर 
3. भेंट कलम लगाकर 
4. मुकुलन द्वारा 

इन सब विधियों में गुटी अथवा दाब कलम  लगाकर पौधे तैयार करने में अधिक सहायता मिलती है।  

लीचीपौधे रोपने का समय और ढंग 

लीची के पौधे वर्षा ऋतु में खेत में बोए जाते हैं, लेकिन यदि सिंचाई की सुविधा हो तो फरवरी-मार्च में इन्हें खेत में बोया जा सकता है। लीची के पौधों को बोने के लिए अप्रैल-मई में खेत में 10 गुणा 10 मीटर की दूरी पर 1 मीटर व्यास के 1 मीटर गहरे गड्ढे गोद लेने चाहिए।और जून तक इन्हें खुला रखना चाहिए जिससे कि मिट्टी और गड्ढे धूप से अच्छी तरह तपे जाये। 

 एक वर्षा हो जाने पर जुलाई के प्रारंभ में इन गड्ढों में प्रत्येक 15 किलोग्राम गोबर की खाद 2 किलोग्राम चुना 250 ग्राम पोटाश 250 ग्राम एल्ड्रिन चूर्ण 10 किलोग्राम लीची के बाग की मिट्टी में मिलाकर गड्ढों को भर देना चाहिए। वर्षा ऋतु में मिट्टी अच्छी प्रकार से गड्ढों में बैठ जाएंगे अब अगस्त में इन गड्ढों के बीचो-बीच पौधा लगाकर उनके चारों तरफ हाला बना देना चाहिए। 


जिससे कि पानी तनु के संपर्क में ना आए पौधों को शीत ऋतु में पाले और ग्रीष्म ऋतु में लू से बचाना चाहिए इस उपाय से पौधों को स्विच देना चाहिए और पौधों के ऊपर और चटाई की पट्टियां लगा देनी चाहिए पूरब की ओर मुंह खुला छोड़ा जा सकता है। 

लीची की सिचाई 

छोटे पौधों को जाड़ों में पाले से बचाने के लिए सिंचाई कर देने की बात हम ऊपर कह चुके हैं सिंचाई कर देने से पौधों पर लोग का असर नहीं होता पौधों में फूल आने से पहले और उसके बाद फल लगने तक दो से तीन सिंचाई करनी चाहिए दिसंबर से मई तक लीची में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है क्योंकि इसी समय लीची में फूल और फल लगते हैं और बढ़ते भी हैं। 

निराई और गुड़ाई

लीची के बाग की निराई गुड़ाई प्रत्येक सिंचाई के बाद की जानी चाहिए,खेत में घास बात कभी नहीं रहने देना चाहिए। 

काट -छाँट

पौधों को सुडौल बनाने के लिए प्रारंभ में कटाई छटाई की आवश्यकता होती है लेकिन पौधों के बड़ा हो जाने पर उन्हें कटाई छटाई करना संभव नहीं होता। फलों को गुच्छे में छोटी बड़ी टहनियां के साथ तोड़ लिया जाता है यही छटाई लीची के लिए पर्याप्त होती है। 

लीची की उपज

लीची के पौधों में प्रति पेड़ औसतन 1 से 2 क्विंटल फल लगते हैं अतः 10 गुणा 10 मीटर की दूरी पर लगाए गए लीची के बाग में प्रति हेक्टेयर तो पेड़ लगते हैं इनसे लगभग 100 से 200 क्विंटल फल प्राप्त होते हैं। 

लीची के फलों को सुरक्षित कैसे रखें 

शीत भंडारों में लीची के फलों को लगभग 3 से 4 सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है। शीत भंडार का ताप 4.4 डिग्री सेल्सियस  से लेकर 6. 1०  सेंटीग्रेट होना चाहिए।

 किट नियंत्रण 

1. माइट -यह सफेद छोटा रंग का कीट होता है या पत्तियों के निचले भाग से रस चूसता है ऐसी पत्तियां सिकुड़कर गिर जाती हैं इनका प्रकोप मई से जुलाई तक अधिक होता है इसकी रोकथाम के लिए फेनकिल  
नामक दवा के 0.15 %प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

2. मिलीबाग-  यह  किट  यूं तो मुख्य रूप से आम को ही हानि पहुंचाता है लेकिन जहां आम और लीची के बाग साथ-साथ होते हैं वहां लीची के फूल तथा नए कलियों का रस चूसता  सकता है इसकी रोकथाम के लिए ओस्टीको  को पेस्ट की पट्टी  बांध देना चाहिए।


3. छिलका खाने वाली सूंडी -इस रोग का प्रकोप होने पर इसकी रोकथाम के लिए क्लोरोफॉर्म में डुबोकर छेदो में भर दे सुंडी  की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 एसी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर  पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

रोग नियंत्रण

4. चूर्णी फफूँदी -इस रोग का प्रकोप होने पर फूलों और नई पत्तियों पर फफूँदी सफेद धूल जैसी दिखाई देती है इसके रोकथाम के लिए केराथेन   0.06% घोल छिड़काव करना चाहिए।

लीची के फलों को फटने से कैसे बचाएं 

फलों को फटने से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए -

1. फलों पर मई के महीने में दो से तीन बार पानी का छिड़काव करना चाहिए।

2.  ऐसी किसमें लगाए जिनके फल कम पड़ते हैं।

3. नेफ़थलीन एसिटिक एसिड का 10 से 20 पी.पी.एम का घोल फलों पर छिड़काव करने से फल कम फटते हैं। 

सेब की खेती कैसे करें How to cultivate apple

सेब की खेती कैसे करें How to cultivate apple

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सेब की खेती कैसे करें How to cultivate apple

 सेब की उपयोगिता

सेब में पर्याप्त मात्रा में विटामिन बी और सी पाए जाते हैं ,खनिज लवणों में यह भी एक पल पर्याप्त रूप में धनी है सेब का सेवन हृदय मस्तिष्क जिगर और अमाशय को बल देता है गर्मी कोई भी यह दूर करता है।  सेब की चटनी मुरब्बा रैली साइडर इत्यादि पदार्थ बनाए जाते हैं जबकि कुछ जातियां साग-भाजी के रूप में भी प्रयोग की जाती हैं। 

सेब का उद्भव

सेब  की उत्पत्ति स्थानों के संबंध में विद्वानों में मतभेद है कुछ लोग यूरोप महाद्वीप तथा दक्षिण पश्चिमी एशिया के काला सागर के बीच स्थान को  सेब का मूल स्थान मांनते हैं हिमाचल प्रदेश में सेब को आदिकाल से उगाया जाता रहा है। सेब की प्रसिद्धि अम्बरी नामक जाति का मूल स्थान हिमालय और इस समय जाती कश्मीर के काफी बड़े क्षेत्रफल में उगाई जाती है। 

भूमि 

सेब के लिए मृतिका दोमट भूमि से अच्छी रहती है भूमि से पानी के निकास का उत्तम प्रबंध होना चाहिए कुछ कुछ अम्लीय भूमि सेब की खेती के लिए अनुकूल रहता है वह में पर्याप्त रूप से गहरा होना चाहिए हमारे देश के सेब उगाने वाले क्षेत्रों की भूमि मुख्य रूप से परती पड़ी हुई अवसादी शैलो अथवा  चट्टानों द्वारा निर्मित और मिट्टी से बनी है।

खाद और उर्वरक


 सेब के पेड़ों के लिए निम्नलिखित विधि से खाद उर्वरक डालना चाहिए।

पहले साल- पेड़ लगाने के बाद उसी वर्ष मार्च महीने में प्रत्येक पेड़ के ताले में 150 ग्राम के हिसाब से कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट मिलाना चाहिए।

दूसरे साल -प्रत्येक पेड़ के ताले में 10 किलोग्राम गोबर की खाद मिल आनी चाहिए इसके बाद हर साल 10 किग्रा के हिसाब से खाद की मात्रा बढ़ाते रहें इस तरह पांचवें साल 40 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद डालनी पड़ेगी इसके बाद भी हर साल 40 किग्रा के हिसाब से ही गोबर की खाद डालते रहे अथवा लगाने के 3 साल तक प्रति पेड़ 10 किलोग्राम गोबर की खाद 1 किलोग्राम हड्डी का चूरा और 4 किलोग्राम राख मिलाकर प्रत्येक वर्ष शीत ऋतु में देनी चाहिए।

इसके बाद खाद की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए अथवा पेड़ के ताले में पहले साल 30ग्राम नाइट्रोजन 25 ग्राम फास्फोरस और 50  ग्राम पोटाश डालना चाहिए। इसके बाद हर साल इसी हिसाब से उर्वरक की मात्रा बढ़ाते रहें इस तरह 10 साल प्रत्येक पेड़ में 300 ग्राम नाइट्रोजन 250 ग्राम फास्फोरस और 500 ग्राम पोस्ट डालना चाहिए खाद और उर्वरक का प्रयोग पतझड़ के बाद चाहे जब किया जा सकता है।

नाइट्रोजन और पोटाश की आवश्यक मात्रा को उपलब्ध कराने के लिए उन लोगों की कुछ मात्रा को खेत में एक सच लेकर उसे कुदाल अथवा फावड़े से अच्छी तरह ढूंढें मिला देनी चाहिए फास्फोरस का प्रयोग पेड़ों के चारों ओर 10 सेंटी मीटर की गहराई तक करनी चाहिए।

सेब के पौधों को कैसे तैयार करें


 सेब के पौधों को दो प्रकार से तैयार किया जाता है

1. चश्मा बांधकर  2. कलम लगाकर या फिर रोपड़

 सेब के बने पेड़ तैयार करने के लिए मूल पौधों के रूप में सेब की नामक किस्म की प्रयोग की जाती है चश्मा बांधने अथवा कलम लगाने के लिए लगभग 1 वर्ष की उम्र के पौधे प्रयोग किए जाते हैं और चश्मा अथवा कलम बसंत ऋतु से प्रारंभ में लगाई जाती हैं कलम लगाने के लिए लगाए गए

 पौधों को क्यारी में इस प्रकार लगाना चाहिए कि उनके बीच में 40 से लेकर 90 सेंटीमीटर तक दूरी रहे चश्मा बांधकर सेब के पेड़ उत्पन्न करना उत्तम  है।  सितंबर के महीने में चश्मा बांध कर किया  जाता है ग्राफ्टिंग विधि से सेब के पेड़ उत्पन्न करने के लिए टंग ग्राफ्टिंग विधि अधिक सफल सिद्ध हुई है टंग  ग्राफ्टिंग कुमायूं की पहाड़ियों में वसंत ऋतु में किया जाता है।

सेब के पौधे कैसे लगाने चाहिए

 सेब के पौधे जाड़ों के दिनों में दिसंबर-जनवरी में लगाए जाते हैं उन स्थानों पर जहां बर्फ अधिक पड़ता है बसंत ऋतु में भी पौधे लगाए जाते हैं सेव लगाने के लिए 90 सेंटीमीटर गहरे हुआ 90 सेंटीमीटर व्यास के गोलाकार गड्ढे खोदे जाने चाहिए इन गड्ढों की आपस की दूरी 6 से 7 मीटर रखनी चाहिए। गड्ढों को गोबर की खाद और मिट्टी से भर कर छोड़ देना चाहिए और उचित समय पर पौधे लगाकर सिंचाई कर देनी चाहिए पौधे लगाने के बाद उनके ख्यालों में बना देना चाहिए।

 पौधों को सीधा रखने के लिए उनको सीधी लकड़ी के सहारे बांध दें और थालो  में से समय-समय पर खरपतवार उखाड़ दे ताकि पौधों का अच्छा विकास हो सकेसेब सेब  की अधिक पैदावार लेने के लिए उनके थालो  को पत्तियों से ढकना आवश्यक है।

सिचाई 

पौधों को अपने प्रारंभिक काल में बसंत तथा ग्रीष्म ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता होती है जिस क्षेत्र में हमारे देश में सेब के बाग हैं पर्याप्त वर्षा होने के कारण पौधों के एक बार लग जाने से फिर उन्हें सींचने  की आवश्यकता नहीं होती।

कटाई और छटाई 

1. फलदार पेड़ों की कटाई छटाई करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

2. सिर के ऊपरी भाग से शुरू कर के भीतर की ओर कटाई करनी चाहिए।

3. कटाई करते समय सूखी रोटी और टूटी हुई शाखाओं को काट देना चाहिए।

4. पेड़ के जिस भाग में शाखाएं बहुत घनी हो उनमें से कुछ शाखाओं को काट देना चाहिए।

 5. मुख्य शाखाओं पर दूसरी और उन पर तीसरी शाखाएं निकलती हैं इनमें से जो शाखाएं ऊपर और नीचे की ओर सीधी बढ़ रही हो उनको काट देना चाहिए।

6. अधिक आयु की फल वाली फसल को काट देना चाहिए।

7. पेड़ों में हल्की छटाई करना अच्छा रहता है।

कटाई छटाई का काम सर्दियों में करना चाहिए क्योंकि उन दिनों पेड़ों में किसी तरह की बढ़वार नहीं होती है।

सेब के फूल को गिरने से कैसे रोके

सेब के पौधों में फरवरी-मार्च में फूल आता है कल के दिन सप्तशती जातियों के अनुसार अक्टूबर से अगस्त तक पकते हैं समय से पहले बालों को गिरने से रोकने के लिए निम्न उपायों को अपनाना चाहिए

 1.पेड़  के थालो में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए।

 2.भूमि में और पेड़ों में सुहागा और मैग्नीशियम की कमी नहीं होनी चाहिए।

3.अल्फा मैथिली एसिटिक एसिड का छिड़काव 1.5 मिलीलीटर पानी की दर से करना चाहिए।

उपज 

सेब के प्रति पेड़ से लगभग 100 से 80 किलोग्राम फल मैदानों में 200 से 300 किलोग्राम तक पहाड़ों पर मिलते हैं एक हेक्टेयर में लगभग 250 पेड़ लगते हैं अतः प्रति हेक्टेयर लगभग 200 से 250 क्विंटल सेब मैदानों में 500 से 600 क्विंटल पहाड़ों पर प्राप्त होते हैं।

कद्दू, सीताफल या काशीफल की खेती कैसे करें-cultivate pumpkin,

कद्दू, सीताफल या काशीफल की खेती कैसे करें-How to cultivate pumpkin, betel leaf

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कद्दू की खेती, Kaddu ki kheti(pumpkin)


                                          

                             कद्दू या सीताफल या काशीफल
                                    ( Pumpkin)
               वानस्पतिक नाम  - Cucurbita moschata
                                     कुल - Cucurbitaceae     


संछिप्त परिचय -कद्दू का मूल स्थान अमेरिका है इसकी खेती का ढंग बिल्कुल लौकी के समान है अंतर केवल इतना है कि जहां लौकी की वर्षा की फसल को छप्परों इत्यादि पर चढ़ाया जाता है, कद्दू की बेल भूमि पर ही रेंगने दी जाती है लौकी और कद्दू की खेती पास-पास नहीं करनी चाहिए ऐसे लोगों का विश्वास है इस बात में केवल इतना ही पता है कि लौकी और कद्दू पर एक ही प्रकार के कीड़े मकोड़े लगते हैं, और एक फसल पर लगा कीड़ा दूसरी फसल को भी हानि पहुंचा सकता है अतः इन दोनों फसल को अलग अलग होगा ना ही सही होता है। 

भूमि 

कद्दू के लिए हल्की दोमट अथवा दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है भूमि से पानी निकास का समुचित प्रबंध होना चाहिए।भूमि कुछ-कुछ अम्लीय होने पर कद्दू की अच्छी उपज होती है। 

भूमि की तैयारी

कद्दू की अच्छी फसल लेने के लिए भूमि की एक बार किसी मिट्टी पलट हल से गहरी जुताई करनी चाहिए इसके बाद चार से पांच जुदाईयां देशी हल से करनी चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पटेला घुमाकर मिट्टी को समतल कर देना चाहिए। 

खाद तथा उर्वरक

काशीफल की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उसमें 300 से 400 कुंटल गोबर या कंपोस्ट खाद तथा 40 से 50 किग्रा नाइट्रोजन 40 से 50 किग्रा फास्फोरस 25 से 40 किग्रा पास कर देना चाहिए। गोबर की खाद से 1 माह पहले खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला दे नाइट्रोजन की मात्रा फास्फोरस और पोटाश की मात्रा मिट्टी में मिला देंगे 45 दिन बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में जड़ों के पास देना चाहिए। 

बीज बोने का समय 

(अ)मैदानी मैदानी क्षेत्रों में

 1. ग्रीष्मकाल (जायद) 
नवंबर-मार्च। शीघ्र फसल के लिए इसे नवंबर में आलू की मेड़ों पर भी बोल देते हैं नदियां के कगार पर दिसंबर में बुवाई करते हैं इस फसल की पॉलिसी सुरक्षा करते हैं उन स्थानों में जायद की फसल फरवरी-मार्च में होते हैं। 

2.बरसात की फसल(खरीफ)-जून-जुलाई
(ब)पर्वतीय क्षेत्रों में-मार्च-अप्रैल 

बीज की मात्रा

कद्दू की जायद फसल लेने के लिए 6 से 7बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यक होता है जुलाई में बोने जाने वाली फसल के लिए 4 से 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है। 

बीज बोने का ढंग 

लौकी  की भांति काशीफल को भी गड्ढों (थालों) में और नालियों में बोते हैं काशीफल को 2.5 - 3 मीटर x 75 - 100 सेमी (पंक्ति xपौधे) की दूरी पर होते हैं। 
ग्रीष्म फसल -   2. 5 x.75 मि० 
वर्षा फसल -      3 x1.0  

उपरोक्त दूरी पर ताला बनाकर एक स्थान पर 3 - 4बीज 2.5 - 3 सेमी गहराई पर बोना चाहिए। 
बाद में एक स्वस्थ पौधा ही बढ़ने के लिए छोड़ते हैं नालियों में बोने पर नालियां निर्धारित दूरी पर 50 सेंटीमीटर चौड़ी 25 से 30 सेंटी मीटर गहरी बनाई जाती है जिसमें खाद डालकर 75 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज को बो दिया जाता है। 

सिंचाई 

जायद फसल में प्रति सप्ताह सिंचाई की आवश्यकता होती है पानी पहले नालियों में दिया जाता है और खेत की बेल फैल जाने पर बेल भरने की सारी जगह में पानी फैलाया  जाता है। खरीफ की फसल में सिंचाई वर्षा ना होने पर आवश्यक होती है सामान्य वर्षा होने पर प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती वर्षा का फालतू पानी खेत से बाहर निकालते रहना चाहिए। 

निकाई- गुड़ाई 

जायद की फसल में दो से तीन बार निराई करने की आवश्यकता होती है। जब तक बेल फैल कर भूमि में भली-भांति धक नहीं लेती निकाई गुड़ाई की जाती रहती है। खरीफ ऋतु में बोई जाने वाली फसल में खरपतवार अधिक जोर पकड़ते हैं।  अतः उन नियंत्रण रखने के लिए तीन से चार बार निकाय -गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है कद्दू की लताएं जमीन पर ही फैलाई जाती हैं अतः फल  भूमि पर ही लगते हैं। 

फसल की उपज 

काशीफल की औसत उपज 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। ग्रीष्म कालीन फसल की उपज 400 क्विंटल तक हो जाती है।  क्योंकि ग्रीष्मकालीन फल 20 से 25 किलो तक का हो जाता है लोगों के साथ काशीफल के 20 नवंबर में बो दिए जाते हैं। वर्षाकालीन फसल में कम पर मिलती है क्योंकि बेल को ऊपर नहीं चढ़ाया जा सकता।

कद्दू के  किट तथा रोग 

कद्दू का लाल किट 

यह किट लाल चमकदार और लंबे आकार का होता है या फलों में छेद कर देता है इसके बच्चे फसल की जड़ों में छेद करके खाते हैं।  

 इनकी रोकथाम के लिए सेविन धूल का 10 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें साइपरर्मेथ्रिन का 0.15% का छिड़काव बहुत ही कारगर सिद्ध हुआ है। 

कद्दू का मक्खी 

इस किट  की मादा कद्दू के फल के छिलके के अंदर अंडे देती हैं, इससे छोटे-छोटे कीट पैदा होकर अंदर ही अंदर फलों को खाते हैं वह सड़ा  देते हैं इनकी रोकथाम के लिए सेविन धूल का 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। 

पाउडर की तरह फफूंदी

इस रोग के कारण पत्तियों की ऊपरी सतह तथा तनाव पर सफेद पाउडर जैसा पदार्थ जम जाता है जिसके फलस्वरूप समय से पहले ही पत्तियां गिर जाती हैं। 
इसकी रोकथाम के लिए फसल पर 0.0 6% कैराथेन ( 60 ग्राम दवा100 लीटर पानी )के घोल का छिड़काव करें। सुटोक्स 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर  से  घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करने से अत्यधिक लाभ मिलता है। 

 कद्दू का बीज उत्पादन कैसे करे 

लौकी, काशीफल,तोरई, करेला, खरबूजा का बीज उत्पादन- कद्दू वर्ग की फसलों का बीज पैदा करने के उद्देश्य से हम कुछ स्वस्थ व चुने हुए रोगमुक्त फलों को बेल पर पकने के लिए छोड़ देते हैं जब फल पूर्ण रूप से पक कर तैयार हो जाए तो फलों को तोड़कर कुछ दिनों के लिए रख दिया जाता है उसके बादलों को चीर कर बीज निकाल लिए जाते हैं बीज को पानी से धोकर दूध में अच्छी तरह सुखाकर शीशियों में बंद कर रख दिया जाता है। 


खरबूजा की उन्नतशील खेती कैसे करें How to cultivate melon

खरबूजा की उन्नतशील खेती कैसे करें How to cultivate melon




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                                           खरबूजा
                                         (MUSK melon)
                          वैज्ञानिक नाम- Cucumis melo.ver.Reticulatus
                                       
                                      कुल - Cucubitaceae 


खरबूजा एक स्वादिष्ट फल है, जिसका प्रयोग पराया फल के रूप में ही खाने के लिए किया जाता है,असल में या निर्धनों का फल है। लेकिन अमीर और गरीब सभी लोग इसे बड़े प्रेम से खाते हैं। अरे फल की तरकारी भी बनाकर खाई जाती है खरबूजा प्रकृति में गर्म और तरह स्फूर्तिदायक व तरावट देता है। 

 कब्ज मूर्त और पसीने की रुकावट में लाभदायक है दोनों समय के भोजन के मध्य का समय तरबूज खाने के लिए सर्वोत्तम रहता है।  खरबूजा पकने के समय इसको जितना भी अधिक गर्मी और लू मिलती है उतना ही इस में मिठास आती है खरबूजे के बीज निकल जाने पर जो गिरी प्राप्त होती है। वह अमीरों के रूप में प्रयोग आती है इसके बीज अत्यंत पौष्टिक कहे जाते हैं बीच में 40 से 45% तेल होता है। 

 जलवायु  

खरबूजे की अच्छी खेती के लिए उचित तापमान और सुखे  जलवायु की आवश्यकता होती है विशेषकर फसल के पकने की अवस्था में अधिक तापमान खुली धुप तथा गर्म हवा  और सुस्क हवा मिलने पर फलों की मिठास में वृद्धि होती है वातावरण में अधिक नमी होने पर फसल में रोग लगने का भय रहता है और फलों का विकास उचित ढंग से नहीं हो पाता। 

भूमि और उसकी तैयारी

खरबूजा कई तरह की मिट्टी में उगाया जाता है लेकिन बलुई दोमट और कचहरी दोमट मिट्टी के उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है भारी मटियार मैं इसको नहीं गाना चाहिए इसकी खेती के लिए भूमि का अनुकूलतम PH मान 6 से 6. 7  के बीच है। 

 नदी तट एवं राजस्थान के रेतीले इलाकों में खरबूजे की खेती विशेष रूप से की जाती है खेत तैयार करने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाला हल गहरी जुताई करके पांच से छह बार देशी हल से जुताई करनी चाहिए जिससे मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए यदि खेत में नमी की कमी हो और अंतिम जुताई से पहले हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। 

खाद तथा उर्वरक

 खाद की आवश्यकता मिट्टी की किस्म और उर्वरा  शक्ति पर निर्भर करती है साधारण रेतीली भूमि में खाद अधिक मात्रा डालनी चाहिए मध्यम उर्वरता वाली बलुई दोमट में 250 क्विंटल गोबर की खाद 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस और 20 से 30  पोटाश किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है।

फास्फोरस और पोटाश की  पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा  खेत की तैयारी के साथ ही डाली जाती है तथा नाइट्रोजन की बची हुई शेष मात्रा को फुल  आने के समय डालना चाहिए गोबर की अच्छी तरह चढ़ी हुई के लगभग 1 महीने पहले खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।


बुवाई का समय 

बुवाई की विधि बीज के बोने के लिए 1.5 मीटर चौड़ी और सुविधाजनक लंबाई वाली क्यारियां बनाई जाती हैं जो क्यारियों के बीच 7 सेंटीमीटर चौड़ी नाली रखी जाती है क्यारियों में दोनों किनारों पर 90 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज बोए जाते हैं प्रत्येक थैले में 4 से 6 बीच लगभग 1.5 सेंटी मीटर की गहराई पर होना चाहिए बीज की दर 3 से 4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

सिंचाई और निराई 

बीज बोकर पहली सिंचाई करने के पश्चात खरबूजे बढ़ने तक लगभग 1 सप्ताह के अंदर पर सिंचाई करते रहना चाहिए जब फलों का आकार आधे से कुछ अधिक बड़ा हो जाए तो 12  से 15दिन के अंतर पर सिंचाई करना पर्याप्त होता है। नालियों में यादों में अधिक पानी न भर जाए अन्यथा पौधों पर रोगों और कीटों का आक्रमण जल्दी होता है ,नदी तट पर आए के बाद दो बार पानी देना पर्याप्त होता है उसके बाद पौधों की जड़ें इतनी बढ़ जाती हैं रेत के नीचे कि पानी सतह पर पहुंच जाती हैं जिससे सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

कीट एवं रोकथाम 

खीरा वर्ग की सभी सब्जियों में लगने वाले कीट खरबूजे में भी बहुत हानि पहुंचाते हैं सबसे अधिक हानि रेड पंपकिन बीटल ,फल मक्खी से होता है।

1. रेड पम्पकिन बीटल 

पहचान -यह लाल रंग का उड़ने वाला कीट है जो पौधों के उठते ही पत्तियों को खाना आरंभ कर देता है

रोकथाम - पौधों पर मेलाथियान 5% धूल का 30 से 35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर छिड़काव करे।  या  0 . 15%सैपरमेथ्रीन के घोल में तीन केवल 150 मी 0 लीटर 100  लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।

2. ईपीलेेकना बीटल 

पहचान -इसके ऊपर काले रंग के गोल धब्बे होते हैं इसके बच्चे और वयस्क दोनों ही पत्तियों को खाते हैं काटने वाली सुंडी रात में निकल कर छोटे पौधों को जड़ से काट देती है इसके रोकथाम के लिए उपयुक्त विधि बताए गए कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग किया जा सकता है काटने वाली संडे को मारने के लिए पौधों के साथ-साथ जमीन पर कीटनाशक दवाओं को डालना चाहिए

3. फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई )


पहचान -यह  खरबूजा की अत्यंत हानिकारक कीट है यह मक्खी कुछ पीले रंग की होती हैं तथा फलों पर अंडे देते हैं कभी-कभी 70 से 80% तक फल इससे ग्रसित हो जाते हैं निम्न विधियों से इनके आक्रमण को कम किया जा सकता है।


रोकथाम -ग्रसित फलो को एकत्रित करके जमीन में गहरा गाड़ दें।  खेत को तैयार करते समय एल्ड्रिन 5% धूल को जमीन की ऊपरी सतह पर बुरकाव करके  मिट्टी में मिला देना चाहिए।

बीमारी और रोकथाम 

1. चूर्णी फफूँदी 

यह फफूंद पत्तियों और तनो पर आक्रमण करती है पुरानी  पत्तियों के निचले भाग  में गोल सफ़ेद धब्बे प्रकट होते है ये धब्बे धीरे - धीरे बड़े होने लगते हैं। और इनकी संख्या में वृद्धि होती रहती है जिससे यह पत्तियों  के ऊपरी सतह पर छा जाते हैं।  

 इसका नियंत्रण करने के लिए लक्षण प्रकट होते ही रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ दे। और पौधों पर घुलनशील गंधक जैसे सल्फेक्स  अथवा इलोसाल के 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें 3 सप्ताह के अंदर पर तीन छिड़काव करें।

2. रोमिल  फफूँदी 

यह अधिक वर्षा और नमी वाले क्षेत्र में होती है पत्तियों के ऊपर सतह पर पीले रंग के धब्बे प्रकट होते हैं जो बाद में भूरे रंग के होने लगते हैं नवी अधिक होने पर पतियों की निचली सतह पर बैंगनी रंग के जीवाणु दिखाई देते हैं साधारणता प्रारंभ में धब्बे पत्तियों के मध्य में होते हैं। 

 जो धीरे-धीरे बाहर की तरफ की सतह पर फैलते हैं इसके नियंत्रण के लिए Rog ऋषि पौधों को निकाल देना चाहिए और पौधों पर इंडोफिल एम 45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 

उपज 

उन्नत विधियों द्वारा करने पर  खरबूजे की उपज 150 से 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर आसानी से प्राप्त होती है। 


तोरई की उन्नतशील खेती कैसे करे - How to cultivate high quality of tomai

तोरई की उन्नतशील खेती कैसे करे How to cultivate high quality of tomai



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                                                तोरई
                                           (Sponge Gound)
                      वैज्ञानिक नाम - Luffa Cylindrica Roem
                                   
                                       कुल -Cucurbitaceae

तोरई की खेती 

भूमि 

तोरई की फसल के लिए हल्की दोमट अथवा दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है लेकिन तोरई  की फसल भी उन सभी मिट्टी में उत्पन्न की जा सकती है जहां लौकी उगाना संभव है। 

भूमि की तैयारी  

लौकी और करेले की फसल के समान तोरई की फसल के लिए भी भूमि एक बार किसी मिट्टी पलट हल से जोड़कर तीन से चार बार देशी हल से जूते नहीं चाहिए।  और पटेला चलाकर भूमि को समतल कर देना चाहिए उन की तैयारी के समय उसमें पर्याप्त मात्रा में कम से कम 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। 

खाद तथा उर्वरक 

खेत की तैयारी करते समय लगभग 250 से 300 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद बुवाई के एक माह पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए खाद की आवश्यकता निम्न प्रकार होती है गोबर की खाद 250 से 300 किलो मीटर तथा 30 से 40 किग्रा नाइट्रोजन 25 से 30 किग्रा फास्फोरस 30 से 40 के ग्रह प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की एक बटे तीन फास्फोरस की मात्रा में बीज बुवाई के पहले मिट्टी में मिल आते हैं। 

 नाइट्रोजन का एक बटे तीन भाग पौधों में चार से पांच पतियों ने पत्थर एक बटे तीन भाग फूल आने पर पौधों के चारों ओर टॉप ड्रेसिंग द्वारा देते हैं। 

बुवाई का समय 

तोरई की फसल मैदानी भागों में वर्ष में दो बार ली जाती है WhatsApp ग्रीष्म ऋतु में वर्षा वाली फसल के लिए बीजों की बुवाई जून-जुलाई में करते हैं तथा गर्मी वाली फसल नवंबर से फरवरी तक बोई जाती है अगेती फसल जिसमें 20 दिसंबर में ही बोए जाते हैं जमाव ना होने पर ठंड से बचाना चाहिए   पहाड़ों पर तोरई  20 अप्रैल से जून तक बोए जाते हैं। 

 बीज की मात्रा 

4 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 

खरीब की फसल में कम जायद में अधिक बार प्रयोग करते हैं। 

 बुवाई का ढंग 


तुरई की  बुवाई लौकी की भांति की जाती है तुरई की बुआई गड्ढों में नालियों में क्यारियों में की जाती है। 

फसल अंतरण                                          ग्रीष्म फसल                                                 वर्षा ऋतू की फसल 

                                                                 2 × 0. 5                                                                 3  × 0. 75 

सिचाई व निकाई -गुड़ाई 

पानी की आवश्यकता मौसम और भूमि की किस्म पर निर्भर करती है। बरसात में प्राया सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती वर्षा पर्याप्त ना होने पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की फसल में प्रारंभिक दिनों में लगभग 10 दिनों के अंतर पर तथा  बाद में तापक्रम बढ़ने पर 5 से 6 दिनों के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता हो जाती है खेत को खरपतवार रहित रखने के लिए समय-समय पर निराई करते रहना चाहिए।

सहारा देना

 शाखा धार सूखे पेड़ों की डालियां बांस की पत्तियों का बहाना बनाकर बैलों को जल चढ़ाने से बरसात की फसल में काफी लाभ होता है।  इससे फलों को गीली मिट्टी के संपर्क में आकर चढ़ने से बचा लिया जाता है और पढ़ाई में भी सुविधा होती है। ग्रीष्म ऋतु की फसल पर आया जमीन पर फैलने देते हैं तोरई में नर और मादा फूल अलग-अलग पौधों पर आते हैं यह दिन और फूल के पुंकेसर वालों की भर्ती गांव के ऊपर रगड़ जाए तो परागण हो सकता है।

बीमारियाँ तथा रोकथाम 

1. चूर्णी फफूदी 

पहचान -इस बीमारी का आक्रमण पत्तियों एवं तनो  पर होता है पहले पुरानी पत्तियों पर सफेद रंग के गोल धब्बे उत्पन्न होते हैं जो धीरे-धीरे आकार और संख्या में बढ़कर पूरी पत्तियों पर छा जाते हैं पत्तियों  की सतह पर सफेद चूर्ण सा जमा  हुआ दिखाई देता है रोग का अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों का हरा रंग समाप्त होने लगता है और यह पीली पड़ कर अंत में भूरी  हो जाती हैं और इन पर झुर्रियों से पड़ जाती है

रोकथाम -लक्षण प्रकट होते ही ग्रसित भाग को निकाल दें। 0. 06 % केराथेन  के घोल का 3 सप्ताह के अंतर पर तीन छिड़काव करें। 

2.रोमिल फफूँदी 

पहचान -पीले से लेकर लाल भूरे रंग के धब्बे पत्तियों की ऊपरी सतह पर तथा बैंगनी रंग के धब्बे पत्ती की निचली सतह पर प्रकट होना इसका मुख्य लक्षण है। रोग ग्रसित पौधों पर लगे फल को ठीक से पकने नहीं और फल में उनका स्वभाव का रंग भी उत्पन्न नहीं हो पाता है।

रोकथाम -इंडोफिल एम 45 के 0. 25 प्रतिशत 250 ग्राम 100 लीटर पानी में घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतर पर 3 बार करें।

3. मोजेक

यह रोग माहू द्वारा फैलता है अतः इन्हें मारने के लिए साईपरर्मेथ्रिन 0.15 प्रतिशत (150 मिली 100 लीटर पानी) दवा का प्रयोग करते हैं रोगी पौधों को निकाल कर जला देना चाहिए।

किट तथा उनकी रोकथाम 

1 . लौकी का लाल भृंग (रेड पंपकिन बीटल )

 यह लाल रंग का उड़ने वाला कीट है पौधों के उठते ही इनकी पत्तियों को खाना आरंभ कर देते हैं।

रोकथाम -पौधों पर मैलाथियान 5% धूल 30 से 35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का बुरकाव   या 50% घुलनशील धूल के 0.2 प्रतिशतघोल 200 ग्राम दवा 100  लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए साईपरर्मेथ्रिन 0.15 प्रतिशत के घोल का छिड़काव बहुत ही कारगर सिद्ध होता है।


2 . तने काटने वाली सूंडी (कटवर्म )

पहचान - यह सुंडी रात में निकलकर छोटे पौधों को भूमि की सतह से काट देते हैं दिन में या घास फूस में छिपी रहती हैं।  

रोकथाम -इनकी रोकथाम के लिए लिन्डोन  1.3 प्रतिशत या  हेप्टाक्लोर (20 से 25 किलोग्राम )प्रति हेक्टेयर को बीज से बुवाई से पहले खेत में मिला देते हैं

3. माहू 

रोकथाम -इनकी रोकथाम काफी हद तक उपरोक्त कीटनाशक दवाओं से ही हो जाएगी किंतु आक्रमण अधिक है।  तो साईपरर्मेथ्रिन 0.15% 150 मिलीलीटर 100 लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।  इस दवा के छिड़कने के बाद 7 दिन तक फल नहीं तोड़ना चाहिए। 

4. फल की मक्खी (फ्रूट फ्लाई )

पहचान -वयस्क मक्खी कुछ पिले लाल रंग की होती है जो फलो में अण्डे देती है। कभी -कभी 50 %तक फल इससे ग्रसित हो जाते है। 

रोकथाम -रोग ग्रसित फलो को इकट्ठा करके जमीन में गहरा गाड़ देना चाहिए। 
 बेल पर फूल आते ही सेविंन  0. 2% 200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में अथवा साईपर्मेथ्रिन में 0 . 15% से 150 मिलीलीटर दवा 100 लीटर पानी में घोल का छिड़काव भी किया जा सकता है। 

उपज 

100-125  कुंतल प्रति हेक्टेयर 


करेले की उन्नतशील खेती कैसे करें

                            करेला (Bitter Gourd)
                   वानस्पतिक नाम -(Mamordica charantia L.)
                                कुल -(Cucurbitaceae)

करेले की  खेती कैसे करें-






करेले की उन्नतशील खेती कैसे करें -How to cultivate bitter gourd

संछिप्त परिचय -

करेले की खेती संपूर्ण भारत में की जाती है इसका फल खुरदरी सतह वाला और कड़वा होता है लेकिन उच्च पोषक तत्वों और औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण इस सब्जी का जन जीवन में बड़ा ही महत्व है करेला ग्रीष्म ऋतु की मुख्य सब्जी है तथा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत गुणकारी है करेले की संपूर्ण खेती भारत में की जाती है इसके फल को सब्जी के रूप में पकाकर, फ्राई करके तथा कलौजी के रूप में प्रयोग करते हैं करेला खाने में कुछ कड़वा होता है लेकिन इसकी सब्जी बहुत ही लाभकारी होती है इसकी इस की सब्जी पेट के कीड़ों को मारती है

 मधुमेह के रोगियों के लिए करेले की सब्जी विशेष रूप से लाभकारी होती है रक्त विकार तथा पीलिया आदि रोगों में इसकी सब्जी का सेवन लाभकारी होता है करेले के रस को सिर की खाल में छाले हो जाने पर प्रयोग करते है तथा  जलने के घाव  और  फोड़ो पर भी लगाया जाता है

 करेले में विटामिन A,B,C तथा खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं

करेला की उत्पत्ति एवं इतिहास 

करेले का जन्म स्थान सम्भवता पुरानी  दुनिया  सूखे  क्षेत्र विशेष  अफ्रीका तथा चीन माने जाते हैं यहां से इनका वितरण संसार के अन्य भागों में हुआ भारत में इसकी जंगली जातियां आज भी उगती देखी गई हैं

जलवाऊ 

यह गर्म तथा नम जलवायु की फसल है फिर भी इस में विभिन्न प्रकार की जलवायु को सहन करने की पर्याप्त क्षमता है इसको अपेक्षाकृत कम तापमान वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है पाले  से इसकी फसल को भारी हानि होती है इसके बीजों का बीज चोल काफी कठोर होता है इसलिए अंकुरण पर्याप्त नमी का शोषण ना होने के कारण धीरे-धीरे  और और अधिक समय में होता है

भूमि तथा उसकी तैयारी

 करेले की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती हैं परंतु बलुई दोमट भूमि जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो वही भूमि सर्वोत्तम रहती है अच्छी उपज के लिए भूमि में जीवाश्म पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए करेले की सफल खेती के लिए भूमि का पीएच मान 6. 0 से 7. 0 के बीच होना चाहिए खेत को तैयार करने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद तीन से चार जुताई देशी हल या हैंरों से करना चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पटेला चलाकर खेत को समतल बना लिया जाता है

बीज और बुवाई 

1. बोने का समय तथा बीज की मात्रा

(अ)मैदानी  क्षेत्रो में-
      ग्रीष्म ऋतू की फसल -नवम्बर -मार्च 
      वर्षा ऋतू की फसल -  जून जुलाई  

(ब)पहाड़ी क्षेत्रो में 
     मार्च से जून तक 

सामन्य रूप से 80 -85 % जमाव क्षमता वाला 6 से 7 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर की बुवाई  लिए पर्याप्त होता है।  

2. बीज बोने की विधि तथा दुरी  

करेले को क्यारियों ,नालियों या गड्ढो में बोया जाता है बोने की दुरी निम्न प्रकार रखनी चाहिए -
ग्रीष्म फसल                                                                                वर्षा ऋतू फसल 
200 *50                                                                                      250 *60 


करेले के बीज को सीधे खेत में ही बोया जाता है 

ग्रीष्म ऋतु वाली अगेती फसल बोने के लिए बीज को पहले भिगोकर तथा बनावटी गर्मी देकर बीज को अंकुरित कर लेते है तैयार खेत में 4 से 5 मीटर लम्बी 2.0 मीटर चौड़ी क्यारिया बनाई जाती है प्रत्येक दो क्यारियां बनाई जाती हैं

 प्रत्येक दो क्यारियों के बीच 60  सेंटीमीटर चौड़ी नाली छोड़ देते हैं बीज इन  क्यारियों के दोनों किनारों पर बने थालों में बोए जाते हैं एक थाले से दूसरे थाले  की दूरी 50 सेंटीमीटर रखते हैं प्रत्येक थाले  में 3  से 4  बीज बोते हैं बीज 2 से 3 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए


खाद तथा उर्वरक 

करेले की अधिकतम पैदावार लेने के लिए सही समय पर उचित मात्रा में खाद और उर्वरक दोनों का ही प्रयोग आवश्यक है खेत की तैयारी के समय गोबर की सड़ी हुई खाद ढाई सौ से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देनी चाहिए इसके अलावा 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस तथा 20 से 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देने के लिए उर्वरकों का प्रयोग करते हैं

सिचाई तथा जल निकास 

करेले की फसल में सिंचाई की आवश्यकता मौसम तथा भूमि की किस्म पर निर्भर करता है बरसात में बोई गई फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती परंतु जब लंबे समय तक वर्षा ना हो तो ऐसी दशा में सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है 

वर्षा ऋतु वाली फसल में जल निकास का अच्छा प्रबंध होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा हो जाने पर पौधे पीले पड़ जाते हैं और बाद में मर जाते हैं ग्रीष्म ऋतु की फसल में प्रारंभिक दिनों में लगभग 10 दिन के अंतर पर और बाद में तापमान बढ़ने पर 6 से 7 दिन के अंतर पर सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है साधारण तरीके से ग्रीष्म ऋतु की फसल में 8 से 10 सिचाइयों की आवश्यकता पड़ती है

खरपतवार नियंत्रण 

आवश्यकता अनुसार समय-समय पर निराई गुड़ाई करके खेत को खरपतवार से साफ रखना चाहिए जब बेले पूर्ण रुप से फैल जाए  निराई-गुड़ाई करना बंद कर देना चाहिए साधारणता वर्षा ऋतु की फसल में तीन से चार  ग्रीष्म ऋतु की फसल में लगभग 2 निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है

सहारा देना 

करेले की फसल को सहारा देना अति आवश्यक है ताकि फलों को गीली मिट्टी के संपर्क में आकर सड़ने से बचाया जा सके इसके लिए शाखा दार पेड़ों की सूखी डाली आधारित याद की लकड़ियां या बांस की पत्तियों का प्रयोग करते हैं वर्षा ऋतु वाली फसल को सहारा देना अधिक लाभप्रद होता है  सहारा देने से फलों की तुड़ाई में सुविधा होती है तथा फलों का आकार और रंग भी अच्छा लगता है


 रोग नियंत्रण 

पाउडर की तरह फफूंदी

इस रोग के फलस्वरूप पत्तियों पर सफेद और पीले रंग का चूर्ण जैसा पदार्थ इकट्ठा हो जाता है और बाद में बदामी रंग के में बदलकर पत्तियां समाप्त हो जाती हैं इससे बचाव के लिए केरातिन दवा 7 ग्राम दवा 2 लीटर पानी में 15 दिन के अंतर पर लगभग 3 छिड़काव करने पड़ते हैं

कोमल फफूंदी

यह फफूदी केवल पत्तियों पर आक्रमण करती हैं जिन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होती है वहां इस रोग का प्रकोप अधिक होता है पतियों की ऊपरी सतह पर पीले से लेकर भूरे रंग के धब्बे पड़ते हैं तथा निचली सतह पर रुई के समान मुलायम वृद्धि होती है रोगी पौधों पर फल कम लगते हैं इसकी रोकथाम के लिए डायथेन एम-45 दवा के 0.2 प्रतिशत घोल  200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में 10 से 15 दिन के अंतर पर तीन छिड़काव करते हैं

 किट नियंत्रण 

रेड पम्पकिन बिटिल 

यह कीट लाल रंग का उड़ने वाला कीट होता है पौधों के उगते ही उन्हें खाना आरंभ कर देते हैं इनकी रोकथाम के लिए सेविन  10% धूल का 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं अथवा 1.5 मिलीलीटर साईपर्मेथ्रिन प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करने पर बहुत ही प्रभाव कारी होता है

ऐपीलेकना बिटिल  

इस किट  पर काले रंग के गोल धब्बे होते हैं यह किट  भी अंकुरित हो रहे छोटे पौधों को खाते हैं इस कीट का नियंत्रण  10% धूल का 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं अथवा 1.5 मिलीलीटर साईपर्मेथ्रिन प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करने पर बहुत ही प्रभाव कारी होता है

कीड़े काट cut worm

इस किट  की सुंडी रात में निकल कर छोटे पौधों को भूमि की सतह से काट देती हैं इस कीट की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन  5% धूल हेप्टाक्लोर  धूल  को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल बोने से पहले मिट्टी में मिला देना चाहिए

 माहु (Aphids)

ये किट की पत्तियों का रस चूस लेते हैं इनकी रोकथाम के लिए फल के आने से पहले की अवस्था में साईपर्मेथ्रिन 0.15% (150 मिलीलीटर  दवा 200 लीटर पानी में )छिड़काव करना चाहिए

फल की मक्खी (FRUIT FLY)

यह किट फलों की ऊपरी सतह को ठीक नीचे अंडे देती है जिनसे बाद में छोटे-छोटे किट  निकलते हैं जिन्हें मैंगट कहते हैं यह मैंगेट फूलों की गुदों को खाते हैं और इस प्रकार उन्हें सड़ा  देते हैं इनकी रोकथाम के लिए जैसे ही फूल आना आरंभ हो जाए (सेविन  दवा 0.2 प्रतिशत घोल  200 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में )15 दिन के अंतर पर तीन छिड़काव करना चाहिए साथ ही साथ टाट  के टुकड़ों पर निम्नलिखित प्रकार से बनाए गए मिश्रण  लगाकर खेत में कई स्थानों पर रखना चाहिए ताकि किट इसे  खाकर मर जाएं

1 . ईस्ट प्रोटीन 500 ग्राम 
2 . मैलाथियान (25 %डब्लू पी ० ) 900 ग्राम 
3 . पानी 13. 5  लीटर 


हेलो दोस्तों कैसे है आप सब  कैसी लगी आपको यह जानकारी हमें कमेंट में जरूर बताये और हाँ एक बात और अगर आप के मन में कोई सवाल है तो आप हमसे पूछे धन्यवाद !


लहसुन और प्याज का रोग नियंत्रण कैसे करें How to control the disease of garlic and onion.

लहसुन और प्याज का रोग नियंत्रण कैसे करें How to control the disease of garlic and onion.



रोग नियंत्रण

प्याज  में लगने वाले प्रमुख रोग तथा उनकी रोकथाम के उपाय नीचे दिए जा रहे हैं

 बैगनी धब्बा

यह रोग फफूंदी  के कारण होता है यह रोग पत्तियों बीज स्तम्भों  और प्याज की गाँठो  पर लगता है रोग  ग्रस्त भाग पर छोटे सफेद धसे  हुए धब्बे बनते हैं जिनका मध्य भाग बैगनी रंग का होता है और उनके चारों ओर कुछ दूरी पर फैला एक पीला क्षेत्र पाया जाता है

रोग के प्रभाव से पत्तियों और तने सूख कर गिर जाते हैं रोग की अवस्था में भी कंद   गलने लगते हैं


 रोकथाम

 1 बीज को थायराम नामक दवा से 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोलना चाहिए

 इंडोफिल एम 45 की दूध से 5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से 8:00 से 10:00 दिन के अंदर पर छिड़काव करें लगभग 4 से 5 गांव करें


 जिस खेत में रोग लगा हो उस में आगामी 2 से 3 साल तक प्याज और लहसुन नहीं बोना चाहिए


मृदु रोमिल आसिता (Downy midew)

यह रोग भी फफूदी के कारण  होता है इस रोग के लक्षण पत्तियों पर धब्बे के रूप में होते हैं यह धब्बे आकार में अंडाकार से लेकर आयताकार तक होते हैं इनका रंग पीला होता है जिसके कारण पत्तियों में हरे पदार्थ की कमी के लक्षण उत्पन्न होते हैं रोग के प्रभाव से पत्तियों का रोग ग्रस्त भाग सूख जाता है रोगी पौधों से प्राप्त कंद आकार में छोटे होते हैं और साथ ही इनकी भंडारण क्षमता भी कम हो जाती है


 रोकथाम 

1 इंडोफिल एम 45 की 2.5 किग्रा मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से रोग के लक्षण दिखाई देते ही छिड़काव करें इसके बाद 7 से 8 दिन के अंतर पर छिड़काव करें

2 . खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करें


जीवाणु मृदु विगलन(Bacterial shoft rot) 

यह रोग एक जीवाणु द्वारा होता है प्याज के कंदो का भंडार गृह में  सड़ना एक  समस्या है यद्यपि इस रोग का प्रारंभिक आक्रमण  पौधों के परिपक्व होने की अवस्था में खेत में ही मिलता है किंतु खेत में साधारण रोग के लक्षण दिखाई नहीं देते परंतु रोग का भीषण प्रकोप होने पर  कंद सङने  के परिणाम स्वरुप पौधे अचानक मुरझा जाते हैं खोदने पर ऐसे कंद  चिपचिपे  सङे  गले निकलते है



रोकथाम

 1.  कंदो  को अच्छी प्रकार से सुखा कर उनके ऊपरी  छिलकों की कटाई करके रखना चाहिए

2 . कंदो को हवादार तथा काम पानी  वाले गृहो में रखना चाहिए




ग्रीवा  विगलन(Neck rot)

यह रोग बोट्राइटिस (Botrytis) नामक फफूदी  की कई जातियों द्वारा होता है इस रोग के कारण प्याज के शल्क पत्र सडकर जलयुक्त धब्बे पैदा करते हैं  कंदो  के उत्तक मुलायम होकर सिकुड़ जाते हैं जो देखने में परिपक्व से लगते हैं  और कंद सूखे से लगते हैं


 रोकथाम

1 .प्याज की कंदो को उखाड़ते समय चोट से बचाना चाहिए भंडारण करते समय कंदो के शीश को पूर्ण रूप से सुखा लेना चाहिए

2 . वैज्ञानिक मत है कि प्याज की सफेद किस्मों में यह रोग जल्दी लगता है इसीलिए जहां तक संभव हो रंगीन किस्मो की खेती की जाए




 प्याज का कंड (Smut) रोग 

यह रोग भी फफूंदी के द्वारा होता है इस रोग के प्रथम लक्षण बीज  अंकुरण के बाद जल्दी  बीजपत्र पर दिखाई पड़ते हैं रोगी पत्ति  तथा बीज- पत्रों  पर काले रंग के ही स्पॉट बनते हैं इन स्पॉटों  के फट जाने पर उनमें से असंख्य बीजाणु काले चूर्ण  के रूप में निकलते हैं यह रोग एक पत्ती से  दूसरी पत्नी पर फैलता हुआ पौधों के अंदर ही अंदर कंद की तरफ बढ़ जाता है रोगी पौधे 3 से 4 सप्ताह बाद मर जाते हैं


 रोकथाम

 1 .  बीज को बोने से पहले थायराम या कैप्टान 2.5  ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए

2.  मृदा को मैथिल ब्रोमाइड (1 किलोग्राम प्रति 25 वर्ग मीटर )के घोल से पौध रोपण से पूर्व उपचारित  कर लेना चाहिए 





कीट नियंत्रण 

प्याज की फसल को थ्रिप्स और मैंगट काफी नुकसान पहुंचाते हैं इसके अलावा तंबाकू की सुंडी  व   रिजका की  सुंडी


 थ्रिप्स (चूरदा )या भुनगा 

 यह किट  लगभग 1 मिली मीटर लंबे बेलनाकार व पीले रंग के होते हैं कौन प्रौढ़  व्  शिशु दोनों ही प्याज की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं इनके घरों चने व चूसने वाले मुख्य अंग होते हैं जब इन का प्रकोप अधिक होता है तो पत्तियों की नौकरी कत्थई रंग की हो जाती हैं तथा सूखी हुई सी प्रतीत होती हैं बाद में पूरा पौधा पीला या बुरा हो जाता है और सोच कर जमीन पर गिर जाता है




रोकथाम

इस कीट की रोकथाम के लिए 0.1 15 परसेंट साहित्य में तीन अथवा अथवा 016 2% 7 का 600 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए अथवा 750 मिलीलीटर मैलाथियान ऐसी 750 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें




मैंगट (प्याज की मक्खी) 

वयस्क मक्खी भूरे काले रंग की करीब 6 मिलीमीटर लंबी होती हैं इसके लार्वा(सुन्डिया ) जो सफेद व 8 मिली मीटर लंबे होते हैं प्याज की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं इसके लार्वा जमीन के अंदर वाले तने व गाँठ  में छेद करके उनके अंदर के मुलायम भाग को खाते हैं  जिसके कारण पौधे धीरे-धीरे मुरझाकर सूखने लगते हैं पौधे को उखाड़कर देखने पर गांठ का मांसल भाग खोखला दिखाई देता है केवल बाहरी भाग ही बचा रहता है इस तरह  खेत में पौधों की संख्या बहुत कम हो जाती है


रोकथाम 

1 .बुवाई के समय खेत में थीमेट नामक दवा 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से  प्रयोग करें -

2 . जब मक्खियां दिखाई दें उस समय साईपर्मेथ्रिन 0 . 15 %या  मैलाथियान के 0.05% घोल का छिरकाव अच्छा रहता है छिड़काव 15 दिन के अंतर पैर करे 

 3.इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि यदि फसल में थिमेट 10 जी का प्रयोग किया गया है तो इस दवा को डालने  के बाद 45 दिन तक प्याज का  कोई भी भाग खाने के काम ना ले


तंबाकू की  सुंडी 

 इस कीट की  सुंडीयां  बेलनाकार ,  हरे -पीले रंग की होती हैं पीठ पर काले धब्बे होते हैं, नवजात सुन्डिया सामूहिक रूप से पत्तियों की निचली सतह को खाती हैं तथा छोटे मुलायम पौधों को नष्ट कर देती हैं पुरानी पौधों की पत्तियों को खुरच -खुरच   खाती हैं जब यह सुन्डिया बड़ी हो जाती है तो अकेले ही पत्तियों को चट कर जाती हैं यह एक सर्वभक्षी कीट है जो प्याज  के अलावा तंबाकू, टमाटर, लहसुन आदि फसल को खाकर के नुकसान पहुंचाता है


रोकथाम 

1.अंडों व सुंडियों  को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए

2.अधिक प्रकोप होने पर  0 . 15% साइपरमेथ्रिन के घोल  फसल पर छिड़काव करें

3 .फसल पर 4% सेविंन धुल का भुरकाव कर सकते हैं


 रिजका की सुंडी

 यह कीट भी प्याज की फसल को कभी-कभी हानि पहुंचाता है इस किट की सुंडी लंबी होती है और इसका रंग हरा भूरा होता है ऊपर की तरफ काले रंग की टेढ़ी -मेढ़ी धारियां होती हैं बगल में पीली धारियां होती हैं यह किट प्याज, मिर्च, बैंगन, मूली आदि की पत्तियों को खाकर नुकसान पहुंचा आता है


रोकथाम 

1.अंडों व सुंडियों  को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए

2.अधिक प्रकोप होने पर  0 . 15% साइपरमेथ्रिन के घोल  फसल पर छिड़काव करें

3 .फसल पर 4% सेविंन धुल का भुरकाव कर सकते हैं


बोल्टिंग 

गांठ के लिए उगाई जाए वाली फसल में   ही   कभी - कभी  पुष्प  डंठल निकल आते  है जिससे प्याज की गुणवत्ता घट जाती है पुष्प डंठल को  निकलना ही बोल्टिंग कहलाता है




 इस प्रकार  डंठल ही गांठ ने एकत्रित भोजन का  उपयोग करते है जिसके कारण प्याज हलकी   हो जाती है जल्दी रोपी गई फसल में बोल्टिंग अधिक  है

उपज 

उन्नत तौर  तरीको से खेती करने पर एक हेक्टेयर से प्याज की 200 -250 कुंतल तक आसानी से मिल जाती है (हरी प्याज 60- 70 )


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